September 05, 2009

मस्ती भरा है समां – दत्ताराम के संस्मरण

इंटरनेट पर उपलब्ध, डॉ. मन्दार वी.बिच्छू के 31 मई 2009 के आलेख ‘मस्ती भरा है समां – दत्ताराम के संस्मरण’ का हिन्दी अनुवाद (मूल अंग्रेज़ी आलेख http://passionforcinema.com/masti-bhara-hai-sama-dattaram-reminisces/ पर पढा जा सकता है)

आज दत्ताराम वाडकर का नाम कइयों को इतना जाना-पहचाना नहीं लगता होगा लेकिन इस गर्व रहित वादक-सह-संगीत सर्जक ने कभी भारतीय फिल्म संगीत के सुनहरे काल में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. 60 के दशक में उनके द्वारा रचा गया ‘अब दिल्ली दूर नहीं, परवरिश, काला आदमी, संतान, क़ैदी नं.911’ आदि फिल्मों का संगीत बहुत प्रसिद्ध हुआ था. शंकर-जयकिशन के सहायक तथा उत्कृष्ट ढोलक वादक के रूप में, दत्ताराम ने कई कालातीत मेलोडियों के सृजन में योगदान दिया. जून 8, 2007 को उन्होंने अंतिम सांस ली तथा अपने पीछे संगीत से जुडी यादों का ख़ज़ाना छोड गए.

लेखक-निर्देशक अशोक राणे की 1-घण्टे की डॉक्यूमेंटरी ‘मस्ती भरा है समां’, नई पीढी को दत्ताराम के प्रभावी सांगीतिक योगदान से परिचित कराने का बहुत अच्छा स्रोत है. कमी सिर्फ इस बात की खलती है कि उसमें उनके एक स्वतंत्र संगीत सर्जक के रूप में किए गए कार्य की बजाय उनके वादक तथा शंकर-जयकिशन के साथ जुडकर किए गए कार्य पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है. लेकिन इस डॉक्यूमेंटरी में चाहे जो भी तकनीकी या विषय-सम्बन्धी खामियां हों, यह इस भुला दी गई प्रतिभा की एक स्पष्ट तस्वीर खींचने में कामयाब होती है, और यह अपने आप में एक बहुत बडी उपलब्धि है. इस डॉक्यूमेंटरी की सबसे महत्वपूर्ण बात है, दत्ताराम द्वारा भव्य अतीत को एकदम साफ तौर पर याद करना! बिल्कुल सरल तरीके से, उन्होंने उस युग के लिए ‘नॉस्टॆल्जिआ’ उत्पन्न किया है जब संगीत-सृजन बहुत प्यार से किया जाता था.
पवन झा को धन्यवाद, जिन्होंने इस डॉक्यूमेंटरी के डीवीडी मुझे दी और मैं इस महारथी की यादों के कुछ महत्वपूर्ण अंश नोट कर सका. मुझे विश्वास है कि फिल्म-संगीत के चाहने वालों को यह रोचक लगेंगे.

चलिए, दत्ताराम से ही सुनें.....

शुरुआत:
“मेरा परिवार गोवा से सावंतवाडी आया और फिर 1942 में हम बम्बई (मुम्बई) के ठाकुरद्वार क्षेत्र आ गए. मैं पढाई-लिखाई में कोई बहुत अच्छा नहीं था और मरी मां मुझे पण्ढरी नागेशकर के पास ले गई. एक गुरुवार को, उन्होंने मेरी कलाई पर गण्डा बान्धा और मुझे तबला सिखाना शुरू कर दिया. बाद में यशवंत केरकर ने भी मुझे तबला सिखाया. उन्होंने ही मुझे फिल्म उद्योग में प्रवेश दिलाया. वे मुझे संगीत निर्देशक सज्जाद के पास ले गए जिनके साथ मैंने कुछ महीनों तक काम किया लेकिन उसके बाद मेरा काम छूट गया.”

शंकर से मुलाक़ात:
“मैं एक व्यायामशाला में जाता था जहां शंकर (शंकर-जयकिशन जोडी के) भी आते थे. एक बार मैं व्यायाम के बाद नहा रहा था जब मैंने शंकर को तबला बजाते सुना, जो उस व्यायामशाला में रखा था. वे एक ग़ज़ल-ठेका बजा रहे थे तथा मं अत्यंत प्रभावित हुआ. मैं तुरंत बाथरूम से बाहर आया और उनकी तारीफ की ‘वाह! क्या बात है’. शंकरजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं संगीत की पृष्ठभूमि से हूं. मैंने कहा हां और फिर मैंने उनके सामने तबला बजाया. वे बहुत खुश हुए और अगले दिन मुझे ओपेरा हाउस थिएटर में आकर मिलने के लिए कहा. वहां पृथ्वीराज कपूर का पृथ्वी थिएटर मंचन करता था और मैं एक वादक के रूप में उससे जुड गया.”

पृथ्वी थिएटर में गुज़ारे दिन:
“उन दिनों में ड्रामा के मध्यांतरों के दौरान लाइव प्रस्तुतियां होती थीं. उनमें राम गांगुली सितार बजाते थे तथा रामलाल-शहनाई. मैंने उनके साथ तबले पर संगत करना शुरू कर दिया. इससे पहले शंकर यह काम किया करते थे लेकिन बाद में उन्होंने मुझे यह ज़िम्मेदारी सौंप दी.”

पहली रिकॉर्डिंग:
”जब राज साहब ने शंकर-जयकिशन को बरसात सौंपी तो मैं उनकी टीम का हिस्सा बन गया. मं रिकॉर्डिंग से पहले व्वदकों के साथ रिहर्सल संचालित करता था. मैं यही सोचता रहता था कि मुझे वास्तविक रिकॉर्डिंग में बजाने का मौका कब मिलेगा. वह मौका संयोगवश आवारा के समय आया. पुण्यवान, जो ढोलक बजाते थे और उस साज़ के लिए मेरे गुरु भी थे, एक रिकॉर्डिंग के लिए नहीं पहुंचे. सारे साज़िन्दे तैयार थे, लताजी तैयार थीं लेकिन ढोलक वादक नदारद थे. दोपहर में 12 बजे शंकरजी ने अचानक कहा, ‘अरे दत्तू भी तो ढोलक बजाता है. आज उसे बजाने देते हैं!’ मैं मौका मिलने से बेहद खुश हो गया. रिकॉर्डिंग पहले ही टेक में बढिया हो गई और शंकरजी तथा लताजी दोनों ने ढोलक वादन के लिए मेरी तारीफ की. वह गाना था ‘इक बेवफा से प्यार किया.’ उसके बाद मैंने ‘राजा की आएगी बारात’, ‘इचक दाना बीचक दाना’ एवं ‘प्यार हुआ इक़रार हुआ’ जैसे गानों में नियमित रूप से बजाना शुरू कर दिया.”

क्लासिक्स का निर्माण:
“आवारा के संगीत पर काम करते समय, एक बार राज कपूर ने अपनी पूरी टीम हो खण्डाला ले जाने का निश्चय किया.वहां उन्होंने एक डांस सिचुएशन समझाई और शंकर-जयकिशन से पूछा कि उसके लायक कोई धुन है क्या. जयकिशन ने कहा कि उनके पास कोई धुन तैयार नहीं है लेकिन शंकरजी ने कहा कि उनके दिमाग में एक धुन है. उन्होंने गाना शुरू किया ‘रमैया वस्तावैया, रमैया वस्तावैया’. तुरंत राज साहब ने पूछा –‘इस दोहराई जा रही लाइन के अलावा इस गाने में और कुछ है य नहीं?’ और तब शैलेन्द्र ने अगली लाइन सही – ‘मैंने दिल तुझको दिया!’”

”एक बार जयकिशन कार चला रहे थे और मैं अगली सीट पर बैठा था. हम चेम्बूर इलाके से गुज़र रहे थे जहां कई नई इमारतें बन रही थीं. मैं बार-बार मुड कर उन बन रही इमारतों को देख रहा था. शैलेन्द्र कार में पीछे बैठे थे और उन्होंने मुझसे पूछा:’अरे दत्तू, ये बार-बार मुड-मुड के क्या देख रहे हो?’ और फिर उन्हें एक आइडिया आया और उन्होंने मशहूर गाना लिखा ‘मुड-मुड के न देख मुड-मुड के.’”

”’घर आया मेरा परदेसी’ अलग-अलग हिस्सों में रिकॉर्ड किया गया था. उसकी रिकॉर्डिंग सुबह 9 बजे से अगले दिन सुबह 6 बजे तक चली! उस रिकॉर्डिंग में लगभग 150 साज़िन्दे और 40-50 कॉयर गायक-गायिका थे. गाने की वास्तविक रिकॉर्डिंग मध्य रात्री में शुरु हुई लेकिन राज साहब ताल से खुश नहीं थे. उन्हें कुछ अलग चाहिए था. तब उन्हें हमारे बांसुरी वादक सुमन ने लाला भाउ का नाम सुझाया. उन्होंने कहा कि लाला भाउ पुणे से आए हैं और ढोलकी बेहतरीन बजाते हैं. मैंने राज साहब से कहा कि तमाशे में ढोलकी बहुत प्रभावी तरीके से इस्तेमाल की जाती है. तब राज साहब ने सुमन को लाला भाउ को बुलाने भेजा. जब वे हट्टे-कट्टे, सांवले, पसीने से लथपथ व्यक्ति आए, तो मैं अचम्भित रह गया. लेकिन जैसे ही उन्होंने ढोलकी पर पहला हाथ मारा, मैंने उसी पल कहा –‘वाह! लाला भाउ, क्या बात है!’ वे मुस्कुराए और सभी खुश हो गए. एक रिहर्सल के बाद, लताजी को बुलाया गया और वह गाना सुबह 2.30 बजे रिकॉर्ड किया गया.”

”शंकरजी ने ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल’ के लिए एक धुन बनाई थी लेकिन शैलेन्द्र के पास बोल तैयार नहीं थे. शैलेन्द्रजी ने शंकरजी से पूछा:’मैं दत्ताराम को कुछ देर के लिए ले जा सकता हूं? वो धुन गुनगुनाएगा और मैं लिख सकूंगा.’ शंकरजी मान गए.”
”शैलेन्द्र मुझे हैंगिंग गार्डन ले गए, जहां हम छांव में बैठकर उस गाने पर काम करने लगे. एक-के-बाद-एक सिगरेट फूंकते हुए शैलेन्द्र शब्दों को इधर-उधर करते रहे. जब अंततः उन्हें प्रेरणा मिली तो उनका पेन खाली था! तो उन्होंने सिगरेट के अधजले हिस्से उठाकर उनसे शब्द लिखे!”

कम्पोज़र के रूप में मेरी फिल्में:
“एक बार राज कपूर शंकर-जयकिशन से कहा कि वे एक छोटे बच्चे पर एक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें वे अभिनय नहीं करेंगे. तो उन्होंने उस फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ के लिए कम्पोज़र के रूप में मेरा नाम सुझाया, जो कि कम्पोज़र के रूप में मेरी पहली फिल्म थी. लताजी ने पहला गाना – जन्मदिन का गाना – ‘जियो लाल मेरे तुम लाखों बरस’ गाया एवं आशाजी ने अगला गाना गाया – ‘ये चमन हमारा अपना है’. उसके बाद मुझे ऐसी सिचुएशन पर धुन बनानी थी जिसमें याक़ूब बच्चे को दिल्ली ले जाते हैं. जब मैं हारमोनियम पर वह धुन बजा रहा था तो राज साहब ने मुझे रोक दिया और कहा, ‘यह एक हिट गाना है!’ वह था ‘चुन-चुन करती आयी चिडिया’ जिसे रफ़ी साहब ने गाया था.”

”जैसे ही प्रोड्यूसर महिपत शाह ने परवरिश की कहानी मुझे सुनाना ख़त्म किया, मैंने उन्हें राज साहब को हीरो के बतौर लेने का सुझाव दिया. किस्मत से राजसाहब ने भी कहानी पसन्द की और मुझे माला सिन्हा को हीरोइन के बतौर लेने का सुझाव दिया. इस फिल्म का हर गाना हसरत द्वारा लिखा गया था. इसमें ‘मस्ती भरा है समां’, ‘मामा-ओ-मामा’ एवं ‘बेलिया-बेलिया’ जैसे गाने थे. हर गाना के लिए पहले राज साहब की स्वीकृति लेना पडती थी. जब मैंने एक दर्द भरा गाना कम्पोज़ किया ‘आंसू भरी हैं’*, उन्होंने मुझे पहले कोई और दूसरी धुन प्रस्तुत करने के लिए कहा लेकिन अंततः पहली धुन को स्वीकृति दी! उसके बाद उन्होंने पूछा, ‘इसे कौन गायेगा?’ मैंने जवाब दिया, ‘ज़ाहिर है, मुकेशजी’.”

कई साल बाद जब मैं लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए काम कर रहा था तो लताजी मुझे एक गलियारे में मिलीं. उन्होंने मुझसे कहा ‘दत्तू, क्या तुम्हें मालूम है कि मैंने हाल ही में तुम्हारा गाना रिकॉर्ड किया है?’ मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि मैंने कई सालों से एक भी रिकॉर्डिंग नहीं की थी! तब वे बोलीं कि उन्होंने ‘आंसू भरी हैं’ गाया था (अपने अल्बम ‘श्रद्धांजलि’ के लिए).
*(प्यारेलाल कहते हैं कि यह गाना झपताल पर आधारित है. उस समय वादकों की हडताल चल रही थी और वह गाना बमुश्किल 7-8 वादकों के साथ रिकॉर्ड किया गया था, जिन्होंने दोस्ती की ख़ातिर बजाया था. उसके बावज़ूद वह एक मास्टरपीस सिद्ध हुआ).

क़ैदी नं.911 एस.पी.इरानी की फिल्म थी. उसमें नन्दा ने एक शिक्षिका का किरदार निभाया था जो शेख मुख्तार की बेटी हनी इरानी के लिए गाना ‘मीठी-मीठी बातों से बचना ज़रा’ गाती हैं. वह छोटी सी लडकी हमेशा उसे गाना गाने के लिए बोलती है लेकिन शिक्षिका हमेशा मना कर देती है. बच्ची नाराज़ हो जाती है और जैसे ही वह जाने लगती है, आलाप शुरू हो जाता है, जो उसे रोक देता है और मुस्कुराने पर मज़बूर कर देता है!


दत्तू ठेका – ढोलक का जादू:
“मैंने ढोलक पर एक विशेष ताल बनाई, जिसे फिल्म उद्योग में दत्ताराम ठेका (दत्तू ठेका) के नाम से जाना गया. इसे मैंने ‘चुन-चुन करती’, ‘मस्ती भरा है समां’ और ‘मेरा जूता है जापानी’ जैसे गानों में इस्तेमाल किया था. कल्याणजी-आनन्दजी ने ‘मेरे दिल में है इक बात’ में वह ताल बजाने के लिए मुझे विशेष तौर पर बुलाया था.”
”मैंने सलिल चौधरी की मधुमति के गानों ‘घडी-घडी मोरा दिल धडके’, ‘आजा रे परदेसी’ एवं ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’ में ढोलक बजाई थी. सलिलदा ने सिर्फ इतना कहा था ‘मुझे तुमसे कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं है. तुम धुन सुनो और जैसा सही समझो, वैसा बजाओ’.”

”एक बार रोशनजी ने मुझे एक रिकॉर्डिंग के लिए बुलाया क्योंकि उनका ढोलक वादक आखरी वक़्त पर नहीं आया. जब कोई मुझे बुलाने के लिए आया तो मैं एक राइटर के साथ बैठा था. उसने कहा कि स्वयं लताजी भी राह रेख रही हैं. मैं तुरंत वहां एक टैक्सी में गया और उस गाने के लिए बजाया ‘सारी-सारी रात तेरी याद सताए’. वह गाना भी बहुत मशहूर हुआ. एक बार मैं धोबीतलाव के एक अस्पताल में भर्ती था और मैंने शादी के एक बैण्ड को वह गाना बजाते हुए सुना. मैं इतना ख़ुश हुआ कि मेरी आधी बीमारी उसी पल ग़ायब हो गई.”

”’मेरा नाम राजू घराना अनाम’ में हमने (लाला भाउ और मैं) उंगलियों से डफली बजाई. आज, ऐसी ताल लकडियों से बजायी जाती है! ‘ओ मैंने प्यार किया’ में मैंने एक लोक-ताल का इस्तेमाल किया था. राज साहब उस प्रयोग से बहुत खुश खुश हुए थे.”

शंकर-जयकिशन के बारे में:
शंकर और जयकिशन दोनों एक-दूसरे से कम नहीं थे. यह बोलने का कोई मतलब ही नहीं है कि एक, दूसरे से अच्छा था. दोनों सिचुएशन और मूड को समझकर उनके हिसाब से धुन बनाते थे. शंकर को भैरवी पसन्द थी और जयकिशन को शिवरंजनी. शंकर को नृत्य-संगीत की तरह के गाने जैसे ‘जहां मैं जाती हूं वहीं चले आते हो’ कम्पोज़ करना पसन्द था तो जयकिशन को रोमाण्टिक गाने जैसे ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम’.

बसंत बहार के लिए, डायरॆक्टर राजा नवाथे ने उनका नाम भूषण बन्धुओं को सुझाया था. भारत भूषण के बडे भाई ने पहले शंकर-जयकिशन से पूछा था कि क्या ऐसी शास्त्रीय संगीत पर आधारित फिल्म के लिए वे संगीत कम्पोज़ कर पाएंगे! शंकरजी ने कहा – ‘क्यों नहीं?’ उन्होंने चुनौती स्वीकार की और सभी उप-शास्त्रीय धुनें कम्पोज़ कीं, जो फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही बहुत लोकप्रिय हो गईं!

मैं उनके रिदम सेक्शन को देखता था तथा सेबेस्टिअन उनका ऑर्केस्ट्रा संचालित करते थे या मेलोडी सेक्शन देखते थे.

भूतकाल बनाम वर्तमान:
गुज़रे ज़माने के संगीत में मेलोडी थी, इसीलिए पुराने गाने जैसे ‘बहारों फूल बरसाओ’ एवं ‘आएगा आनेवाला’ अभी भी लोकप्रिय हैं. आज का संगीत युवाओं के लिए अच्छा है लेकिन बहुत तेज़ है. दस मिनट बाद आपको गाना याद तक नहीं रहता है!